
लेकिन उससे पहले अगर हम इसके पिछले तीन से चार सौ वर्षों के इतिहास को देखें तो यह समय अलीगढ़ के लिए उसके नाम की तरह ही काफी उथल-पुथल भरा रहा है। इसके अलावा, अलीगढ़ जिले के कई ऐतिहासिक स्थानों और नामों के तमाम अध्ययनों से यह मालुम होता है कि किसी समय में यह क्षेत्र घने वनों से काफी घिरा हुआ रहा करता था।
सबसे पहले अगर हम अलीगढ़ के नाम के विषय में बात करें तो आज का अलीगढ़ करीब 350 वर्ष पहले तक भी अपने उसी प्राचीन ‘कोल’ या ‘कोइल’ नाम से ही पहचाना जाता था। लेकिन, मुगल आक्रमणों और रक्तपात से भरे सत्ता परिवर्तनों के बाद इसका नाम बदल कर ‘अलीगढ़’ हो गया। जबकि उसके कुछ वर्षों बाद ये नाम बदल कर कभी ‘साबितगढ़’ तो कभी ‘रामगढ़’ हो गया। और एक बार फिर से अलीगढ़ हो गया।
अलीगढ़ के प्राचीन और पौराणिक इतिहास के विषय में चर्चा करने से पहले यहां यह जान लेना भी आवश्यक है कि इसका पिछले करीब 300 से 350 वर्ष पूर्व का इतिहास बताता है कि आज जिसे हम अलीगढ़ के नाम से जानते हैं उस स्थान को ये नाम दिया था यहां के मुगल शासक नजफ खाँ ने।


दरअसल, इस शहर के इतिहास से जुड़े एक महत्वपूर्ण स्थान और वहां मौजूद किले के कारण ही इसको बार-बार ये नाम दिये गये। और प्राचीन ‘कोल’ या ‘कोइल’ नाम की वह जगह आज भी यहां मौजूद है जो अब अलीगढ़ जिले की एक तहसील के रूप में जानी जाती है।
तो ये तो था ‘अलीगढ़’ का वो आधुनिक इतिहास जो खूनखराबे और सत्ता परिवर्तन के भारी उतार-चढ़ावों से भरपूर रहा है। लेकिन, यदि प्राचीन और पौराणिक दृष्टि से देखा जाये तो आज का यह अलीगढ़ पौराणिक युग के उस दौर में एक पवित्र तथा धार्मिक महत्व का नगर हुआ करता था।
अब अगर हम इसके उस प्राचीन नाम ‘कोल’ या ‘कोइल’ से जुड़े कुछ तथ्यों को देखें तो पौराणिक कथाओं में पाया जाता है कि इस क्षेत्र में कोही नाम के एक ऋषि रहा करते थे जिनके आश्रम का नाम ‘कोहिला आश्रम’ था। आगे चल कर यही नाम इस क्षेत्र के लिए प्रचलित हो गया और ये स्थान ‘कोहिला’ या ‘कोल’ के नाम से प्रचलित हो गया।
इसके अलावा, त्रेता युग में रची गई बाल्मीकि रामायण तक में भी प्राचीन अलीगढ़ का उल्लेख पाया जाता है। पौराणिक कथाओं में यह भी बताया जाता है कि कोहिलाश्रम और मथुरा के मध्य महर्षि विश्वामित्र का भी आश्रम हुआ करता था।
जबकि, एक अन्य तथ्य बताता है कि अलीगढ़ जनपद में स्थित वेसवा नाम का एक कस्बा है जहां आज भी प्राचीनकाल का ‘धरणीधर’ नामक सरोवर है। इस ‘धरणीधर सरोवर’ के बारे में कहा जाता है कि इसी के किनारे पर महर्षि विश्वामित्र आश्रम हुआ करता था।
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और क्योंकि ‘धरणीधर’ नाम का ये सरोवर उस समय अलीगढ़ ब्रजमण्डल के किनारे पर, यानी कोर पर स्थित था इसलिए कुछ इतिहासकारों ने माना है कि आगे चल कर उसी ‘कोर’ शब्द से परिवर्तित होकर यह ‘कोल’ कहा जाने लगा होगा।
इस क्षेत्र से जुड़ी द्वापर युग की एक महत्वपूर्ण घटना भी बताई जाती है। जिसके अनुसार इतिहासकार मानते हैं कि इस क्षेत्र में एक कौशिरिव कौशल नाम के चन्द्रवंशी राजा का शासन हुआ करता था। लेकिन, राजा कौशिरिव कौशल को एक युद्ध में पराजित करके ‘कोल’ नाम का एक निरंकुश तानाशाह यहां का राजा बन बैठा और उसी ने इस जगह का नाम बदल कर ‘कोल’ रख दिया था।
कहा जाता है कि एक बार जब भगवान श्रीकृष्ण के बड़े भाई बलराम यहां के ‘रामघाट’ की ओर गंगा स्नान के लिए जा रहे थे तो उन्होंने यहां के श्री खेरेश्वरधाम पर अपना पड़ाव डाला था। उसी दौरान उन्होंने यहां के उस कोल नामक निरंकुश तानाशाह का अपने हल के प्रहार से वध करके यहां उसी हल को धोया था।
कहा जाता है कि उसके बाद से ही इस स्थान का नाम हल्दुआ हो गया। श्री खेरेश्वरधाम नामक वह स्थान यहां अलीगढ़ नगर से करीब 5 किमी की दूरी पर आज भी मौजूद है। जबकि बलराम के साथ आये उनके सेनापति हरदेव ने भी उसी गाँव के निकट अपना डेरा डाला था इसलिए उस गांव का नाम भी आगे चल कर हरदेव से हरदुआगंज हो गया।
हालांकि, कुछ जानकार मानते हैं कि कुछ प्राचीन ग्रंथों में, कोल एक जनजाति या जाति हुआ करती थी। जबकि कुछ अन्य मानते हैं कि ‘कोल’ एक स्थान या पर्वत का नाम या फिर किसी ऋषि के नाम से लिया गया हो सता है। जाट इतिहासकार धर्मपाल सिंह दुदी का कहना है कि, ‘कोल’ जाटों का गोत्र है क्योंकि जाट कपिल ऋषि के वंशज हैं।
महाभारत काल के बाद जैसे-जैसे यहां की शासन व्यवस्था बदलती गई, यह क्षेत्र उन तमाम वंशों के शासकों का अधिकार क्षेत्र बनता गया और धीरे-धीरे यहां का इतिहास तथा तमाम प्रकार की ऐतिहासिक संरचनाएं भी बनती गईं। जिनमें से कुछ के अवशेष आज भी देखने को मिल जाते हैं तो कुछ का अस्तित्व ही अब समाप्त हो चुका है।
पुरात्विक विभाग का कहना है कि अलीगढ़ में प्राचीनकाल से ही दो महत्वपूर्ण किले हुआ करते थे जिनमें से एक टीले पर ‘ऊपर कोट’ नाम से और दूसरा मुस्लिम विश्वविद्यालय के उत्तर में बरौली मार्ग पर स्थित है।
हालांकि, इस स्थान की उन ऐतिहासिक प्रामाणिकताओं के तौर पर मथुरा संग्रालह में आज भी 200 बीसी यानी आज से करीब 2,200 साल पहले के कुछ सिक्के और अन्य अनेकों प्रकार की सामग्रियां सुरक्षित हैं जो सासनी, लाखनू और हरदुआगंज में हुई पुरातात्वि खुदाई में मिले थे।
‘अलीगढ़ जनपद का ऐतिहासिक सर्वेक्षण’ नामक एक पुस्तक के लेखक प्रोफेसर जमाल मौहम्मद सिद्दीकी ने अपनी इस पुस्तक में इस क्षेत्र में मौजूद करीब 200 ऐसी पुरानी बस्तियों और टीलों का जिक्र किया है जहां तमाम पौराणिक युग के राजवंशों के अवशेष और रहस्य छूपे हुए हैं।
– अजय सिंह चौहान