
आप लड्डू लेकर भगवान को भोग चढ़ाने मंदिर या यज्ञ में जा रहे हैं और रास्ते में आपका जानने वाला कोई मिलता है और पूछता है यह क्या है? तब आप उसे बताते हैं कि यह लड्डू है।
फिर वह पूछता है कि किसका है?
‘तब आप कहते हैं कि यह अमुक वस्तू का बूंदी, वेसन से बना है।’
’मेरा है और मैं इस मावा/बूंदी/वेसन के लड्डू का भोग लगाने जा रहा हूं।’
‘फिर जब आप वही मिष्ठान्न प्रभु के श्री चरणों में रख कर या यज्ञ की अग्नि में उन्हें समर्पित कर देते हैं और उसे लेकर घर को चलते हैं तब फिर आपको जानने वाला कोई दूसरा मिलता है और वह पूछता है कि यह क्या है?
तब आप उसका नाम नहीं बताते बल्कि कहते हैं कि यह ‘प्रसाद’ है।
फिर वह पूंछता है कि किसका है, तब आप कहते हैं कि यह भगवान का, परमपिता परमेश्वर का प्रसाद है।
अब इसमें समझने वाली गहन बात यह है कि लड्डू तो वही है। क्योंकि उसके रंग रूप स्वाद परिमाण में कोई अंतर नहीं पड़ता है तो प्रभु ने उसमें से क्या ग्रहण किया कि उसका नाम बदल गया।
वास्तव में प्रभु ने मनुष्य के अहंकार को हर लिया। यह ‘मेरा है’ का जो भाव था, ‘अहंकार’ था प्रभु के चरणों में समर्पित करते ही उसका ‘हरण’ हो गया।’
‘प्रभु को भोग लगाने से मनुष्य विनीत स्वभाव का बनता है शीलवान होता है। अहंकार रहित स्वच्छ और निर्मल चित्त मन का बनता है।’
इसलिए इसे पाखंड नहीं कहा जा सकता और ना ही अंधविश्वास। यह विज्ञान भी है और मनोविज्ञान भी।
’मैं (अहम्) का त्याग कर ‘हम’ को प्राथमिकता दें’।